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उद्वां॒ चक्षु॑र्वरुण सु॒प्रती॑कं दे॒वयो॑रेति॒ सूर्य॑स्तत॒न्वान्। अ॒भि यो विश्वा॒ भुव॑नानि॒ चष्टे॒ स म॒न्युं मर्त्ये॒ष्वा चि॑केत ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud vāṁ cakṣur varuṇa supratīkaṁ devayor eti sūryas tatanvān | abhi yo viśvā bhuvanāni caṣṭe sa manyum martyeṣv ā ciketa ||

पद पाठ

उत्। वा॒म्। चक्षुः॑। व॒रु॒णा॒। सु॒ऽप्रती॑कम्। दे॒वयोः॑। ए॒ति॒। सूर्यः॑। त॒त॒न्वान्। अ॒भि। यः। विश्वा॑। भुव॑नानि। च॒ष्टे॒। सः। म॒न्युम्। मर्त्ये॑षु। आ। चि॒के॒त॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:61» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले इकसठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब अध्यापक और उपदेशक कैसे होवें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुणा) श्रेष्ठो (देवयोः) विद्वान् ! जो (वाम्) आप उन दोनों के जिस (सुप्रतीकम्) उत्तम प्रकार रूप आदि के ज्ञान करानेवाले (चक्षुः) चक्षु इन्द्रिय को कि जिससे देखता है (ततन्वान्) विस्तृत करता हुआ (सूर्यः) सूर्य्यमण्डल जैसे (उत्, एति) उदय को प्राप्त होता है और (यः) जो मनुष्य (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवनानि) भुवनों को (अभि, चष्टे) जानता है (सः) वह (मर्त्येषु) मनुष्यों में (मन्युम्) क्रोध को (आ) सब प्रकार से (चिकेत) जाने, वैसे आप दोनों करिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करता है, वैसे अध्यापक और उपदेशक जन सब के आत्माओं को प्रकाशित करते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाध्यापकोपदेशकौ कीदृशौ भवेतामित्याह ॥

अन्वय:

हे वरुणा देवयोर्वां यत्सुप्रतीकं चक्षुस्ततन्वान् सूर्यइवोदेति यो मनुष्यो विश्वा भुवनान्यभि चष्टे स मर्त्येषु मन्युमा चिकेत तथा युवां कुरुतम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (वाम्) युवयोः (चक्षुः) चष्टेऽनेन तत् (वरुणा) वरौ (सुप्रतीकम्) सुष्ठु रूपादिप्रतीतिकरम् (देवयोः) विदुषोः (एति) (सूर्यः) सवितृमण्डलम् (ततन्वान्) विस्तीर्णः (अभि) (यः) (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) (चष्टे) जानाति (सः) (मन्युम्) क्रोधम् (मर्त्येषु) मनुष्येषु (आ) समन्तात् (चिकेत) विजानीयात् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा सूर्यस्सर्वान् लोकान् प्रकाशयति तथाऽध्यापकोपदेशकौ सर्वेषामात्मनः प्रकाशयतः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

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भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा सूर्य संपूर्ण गोलांना प्रकाशित करतो तसे अध्यापक व उपदेशक सर्वांच्या आत्म्यांना प्रकाशित करतात. ॥ १ ॥